सच्चे गुरु व शिष्य की पहचान Sachhe Guru v Shishy ki Pahchan
सन्त Sant के पास एक युवक आया और बोला- 'महात्मन् ! मैं किसी सच्चे गुरु की तलाश में हूँ। मेरी यह तलाश किस तरह पूरी हो सकती है ?
उस युवक की बात सुनकर सन्त Sant ने कहा - 'वत्स ! तुम गुरु की तलाश में हो। तुम्हें सच्चा गुरु तभी मिल सकता है, जब तुम सच्चा शिष्य बनना सीखो।" तब युवक ने पूछा- 'सच्चे शिष्य की क्या पहचान है ?
सन्त Sant ने बताया- 'सच्चा शिष्य वही है, जो अपने व्यक्तित्व को अपने गुरु में समर्पित, विसर्जित और विलीन कर दे। जो स्वयं पूरी तरह से विलीन होकर अपने अस्तित्व में अपने गुरु को प्रतिष्ठित कर ले। जो स्वयं अपने गुरु में भगवान को देखे। शिष्य के मन में हमेशा यह भाव होना चाहिए कि जैसे स्वयं भगवान ने उसके कल्याण के लिए गुरु का स्वरूप धारण कर लिया है।
युवक ने अगला प्रश्न किया- 'महात्मन् ! हम अपने गुरु में भगवान को कैसे देख सकते हैं ?
युवक के प्रश्न को सुनकर सन्त Sant कुछ देर मौन होकर बोले - ये भक्ति से सम्भव है ! भक्ति सब कुछ देने में समर्थ है। वह शिष्य को गुरु देती है और भक्त को भगवान। सन्त Sant के मुख से झर रही शब्दों की इस अमृतधारा से आगंतुक युवक का रोम-रोम पुलकित हो रहा था। अब युवक ने पूछा- 'महात्मन् ! कृपया यह बताएं कि सच्चे गुरु की परिभाषा क्या है ?
उन सन्त Sant ने कहा स्वयं से कोई गुरु नहीं बन पता ऐसा करने बाला तो अपने शिष्य को कुछ दे ही नहीं सकता गुरु पद पर तो स्वयं भगवान ऐसी पवित्र आत्मा को नियुक्त करते हैं, जो स्वयं अनुपस्थित हो गया, जिसका व्यक्तित्व पूरी तरह से अनुपस्थित है, जहाँ केवल भगवान उपस्थित हैं, वही गुरु पद का अधिकारी है। यह अधिकार एक तरह से उसे स्वयं भगवान सौंपते हैं।
इस तरह सन्त Sant ने अपनी सारगर्भित बातों के जरिए आगंतुक युवक की जिज्ञासा का समाधान किया। युवक को अपने प्रश्नों का यथोचित जवाब मिल चुका था। उसकी गुरु की तलाश खत्म हो चुकी थी। उसने संत के चरणों में नमन किया और उन्हें अपना गुरु मान लिया।